उसे पता था कि वो गांव की पहली लड़की नहीं है जो कॉलेज जाने का सपना देख रही है. लेकिन वो पहली लड़की ज़रूर है जिसने अपने इस सपने को हक़ीक़त में बदलने की ठान ली थी.
ये रास्ता वो अपने और अपनी 10 बहनों के लिए ही नहीं, अपनी ग्राम पंचायत की सभी लड़कियों के लिए बना रही थी.
दिल्ली से महज़ 100 किलोमीटर की दूरी पर हरियाणा के करनाल ज़िले की देवीपुर ग्राम पंचायत में आज़ादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी लड़कियों को कॉलेज जाना नसीब नहीं हुआ था.
परिवार, गांव और सरकारी तंत्र से संघर्ष कर इन्होंने कॉलेज जाने का हक़ कैसे जीता?
ये है नैना और उसकी पंचायत की 14 लड़कियों की ज़िद और हौसले की कहानी.
BBCShe प्रोजेक्ट के लिए ये लेख फेमिनिज़म इन इंडिया हिंदी और बीबीसी ने साथ मिलकर लिखा है ताक़ि हम अपनी पत्रकारिता में महिलाओं के सरोकारों को बेहतर दर्शा सकें.
BBCShe प्रोजेक्ट के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए करें
आज़ादी की तरफ़ पहला क़दम
गांव की बाक़ी लड़कियों की तरह नैना ने भी स्कूल की पढ़ाई किसी तरह पूरी की.
कॉलेज जाना मतलब ज़्यादा आज़ादी, जो परिवार को नागवार थी और कई शर्तों के साथ ही मिल सकती थी.
नैना बताती हैं, "मुझे घर से हिदायत दी गई थी कि किसी से ज़्यादा बातचीत नहीं करना, फ़ोन का इस्तेमाल तो बिल्कुल भी नहीं. घर से कॉलेज और कॉलेज से सीधा घर."
साथ ही कॉलेज ना भेजने के लिए तो पूरे गांव के पास एक ठोस वजह थी.
देवीपुर से कॉलेज जाने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं था. गांव से कॉलेज के रास्ते में एक पुल आता है जिसे पार करना एक बड़ी चुनौती थी.
पुल जिसे पार करना मुश्किल था
गांव के एक बुज़ुर्ग बताते हैं, "बस न होने के कारण लोग अपनी लड़कियों को कॉलेज भेजने से बचते थे. ट्रांसपोर्ट के लिए उन्हें पैदल चार किलोमीटर चलना पड़ता था. लड़कियां भी डरती थीं. पुल पर लड़के बदमाशी करते थे."
लड़कियों के साथ इस पुल पर हर दिन कोई न कोई घटना होती. उन पर कीचड़ फेंका जाता तो कभी लड़के ईंट मारकर चले जाते. गंदे कॉमेंट तो जैसे रोज़ाना की बात थी.
देवीपुर गांव से कॉलेज जाने के रास्ते में पड़ने वाला पुल
लेकिन लड़कों के बाहर आने-जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी और घर में लड़के की चाहत बरक़रार.
नैना के ताऊ जिनके दो बेटे हैं, कहते हैं, "मैं तो भगवान से मांगता हूं, अगर मेरे भाई को बेटा हो गया तो वो मेरे बराबर हो जाएगा."
वो एक 'चिठ्ठी'
नैना की कॉलेज जाने की ज़िद को देखकर कुछ और लड़कियों ने भी हिम्मत जुटाई और तय किया कि अगर गांव तक बस आ जाए तो इस समस्या का हल हो जाएगा.
लड़कियों ने मिलकर गांव के लोगों के साथ एक मीटिंग बुलाई और यही बात कही.
इन लड़कियों ने मिलकर करनाल की चीफ़ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट जसबीर कौर को बीते साल मई में चिट्ठी लिखी.
सीजेएम जसबीर कौर के लिए ये चौंकाने वाली बात थी कि इस ग्राम पंचायत की लड़कियां आज तक कॉलेज ही नहीं गई थीं.
जेंडर पर काम करने वाली संस्था ब्रेकथ्रू के ज़रिए जब लड़कियां उनके पास आईं तो उन्होंने अगले दिन ही बस चलवाने का आदेश दे दिया.
क्या लड़कियों को नशा करते देखा है?'
सीजेएम जब ख़ुद देवीपुर गांव गईं तो उन्होंने देखा कि बस के साथ-साथ लोगों की सोच भी एक समस्या थी.
वो बताती हैं, "मैंने गांव वालों से पूछा कि उन्होंने बाहर नशा करते हुए कितनी लड़कियों को देखा है? गांव वालों ने कहा कि नहीं देखा है. मैंने पूछा कि कितनी लड़कियों को स्कूल छोड़कर भागते हुए देखा है? गांव वालों ने कहा कि नहीं देखा है."
"तब मैंने गांव वालों से सवाल किया कि फिर क्यों आपको लगता है कि कॉलेज जाने से लड़कियां बिगड़ जाएंगी? गांव वालों ने मेरी बात मानी और लड़कियों को बस से कॉलेज भेजने के लिए तैयार हो गए."
"पुल पर होने वाली घटनाओं को रोकने और लड़कियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक पीसीआर की व्यवस्था करवाई, जो अब हर रोज़ दिन में दो बार पूरे इलाक़े का चक्कर लगाती है."